Jai Jai Sur Nayak - भगवान विष्णु कीअतिप्रिय स्तुति - ब्रह्माजी द्वारा वर्णित
ॐ श्री गणेशाये नमः
त्रेता युग में महाबली रावण के डर से सभी देवगण छुप कर एक गुप्त स्थान पर रहने लगे । माँ पृथ्वी भी उसके अत्याचारों से त्रस्त होकर (कामधेनु रूप में) उन देवताओं के पास जा पहुँची । तब वे सभी देवगण और माँ पृथ्वी ब्रह्मा जी के पास जाकर करुण क्रंदन करते हुए अत्यंत विलाप करने लगे ।
ब्रह्मा जी ने कहा कि “ हे भू देवी, जो सबके पालन हार है, वही भगवान विष्णु ही इस विपत्ति का निवारण कर सकते है ।
अब सभी देवता विचार करने लगे कि भगवान विष्णु को कहाँ खोजे , हम किस प्रकार उन तक पहुँचे - क्षीर सागर जाए या वैकुण्ठ जाए , भगवान तो चौदह भवन विहारी है , हम किस प्रकार उन तक पहुँच सकते है । इस भावावेश में वो सभी देवगण अत्यंत व्यथित हो गए ।
उसी सभी में भगवान भोलेनाथ भी उपस्थित थे । भगवान शिव ने ब्रह्मा जी व सभी देवताओं को सम्बोधित कर कहा के “ ऐसा कौन सा स्थान है , जहां भगवान विष्णु नहीं है । जहां भी उनके भक्त प्रेम से उन्हें पुकारते है , भगवान विष्णु अपने भक्तों का दुःख हरने तुरंत ही वहाँ पहुँच जाते है । भगवान तो भाव की भूखे है , वो अपने भक्त को पीड़ा में नहीं देख सकते । जैसे गजेंद्र को कष्ट में देख कर भगवान ने तुरंत ही हरी रूप में प्रकट् हो उसका उद्धार किया था (गजेंद्र मोक्ष स्तुति ) ।
वैसे ही अगर हम सच्चे भाव से भगवान की स्तुति करेंगे तो वो हमारी पीड़ा हरने यही इसी जगह आ जाएँगे ।
ब्रह्मा जी द्वारा की गयी यह स्तुति, भगवान विष्णु को अतिप्रिय है । इस स्तुति के आर्त भाव से पढ़ने पर भगवान तुरंत ही अपने भक्त का दुःख हरने का यत्न करते है।
तो आइए ब्रह्मा जी द्वारा वर्णित इस स्तुति का हम पाठ करते है - गायन करते है
जय श्री हरि
सुनि बिरंचि मन हरष तन, पुलकि नयन बह नीर।
अस्तुति करत जोरि कर, सावधान मतिधीर॥
भगवान शिव बात सुनकर ब्रह्माजी के मन में बड़ा हर्ष हुआ, उनका तन पुलकित हो गया और नेत्रों से (प्रेम के) आँसू बहने लगे। तब वे धीरबुद्धि ब्रह्माजी सावधान होकर हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे॥
जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कंता॥
पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।
जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥1॥
हे देवताओं के स्वामी, सेवकों को सुख देने वाले, शरणागत की रक्षा करने वाले भगवान! आपकी जय हो! जय हो!! हे गो-ब्राह्मणों का हित करने वाले, असुरों का विनाश करने वाले, समुद्र की कन्या (श्री लक्ष्मीजी) के प्रिय स्वामी! आपकी जय हो! हे देवता और पृथ्वी का पालन करने वाले! आपकी लीला अद्भुत है, उसका भेद कोई नहीं जानता। ऐसे जो स्वभाव से ही कृपालु और दीनदयालु हैं, वे ही हम पर कृपा करें॥1॥
जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।
अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥
जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगत मोह मुनिबृंदा।
निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥2॥
हे अविनाशी, सबके हृदय में निवास करने वाले (अन्तर्यामी), सर्वव्यापक, परम आनंदस्वरूप, अज्ञेय, इन्द्रियों से परे, पवित्र चरित्र, माया से रहित मुकुंद (मोक्षदाता)! आपकी जय हो! जय हो!! (इस लोक और परलोक के सब भोगों से) विरक्त तथा मोह से सर्वथा छूटे हुए (ज्ञानी) मुनिवृन्द भी अत्यन्त अनुरागी (प्रेमी) बनकर जिनका रात-दिन ध्यान करते हैं और जिनके गुणों के समूह का गान करते हैं, उन सच्चिदानंद की जय हो॥2॥
जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा।
सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा॥
जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा।
मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुरजूथा॥3॥
जिन्होंने बिना किसी दूसरे संगी अथवा सहायक के अकेले ही (या स्वयं अपने को त्रिगुणरूप- ब्रह्मा, विष्णु, शिवरूप- बनाकर अथवा बिना किसी उपादान-कारण के अर्थात् स्वयं ही सृष्टि का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण बनकर) तीन प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की, वे पापों का नाश करने वाले भगवान हमारी सुधि लें। हम न भक्ति जानते हैं, न पूजा, जो संसार के (जन्म-मृत्यु के) भय का नाश करने वाले, मुनियों के मन को आनंद देने वाले और विपत्तियों के समूह को नष्ट करने वाले हैं। हम सब देवताओं के समूह, मन, वचन और कर्म से चतुराई करने की बान छोड़कर उन (भगवान) की शरण (आए) हैं॥3॥
सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना।
जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना॥
भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा।
मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा॥4॥
सरस्वती, वेद, शेषजी और सम्पूर्ण ऋषि कोई भी जिनको नहीं जानते, जिन्हें दीन प्रिय हैं, ऐसा वेद पुकारकर कहते हैं, वे ही श्री भगवान हम पर दया करें। हे संसार रूपी समुद्र के (मथने के) लिए मंदराचल रूप, सब प्रकार से सुंदर, गुणों के धाम और सुखों की राशि नाथ! आपके चरण कमलों में मुनि, सिद्ध और सारे देवता भय से अत्यन्त व्याकुल होकर नमस्कार करते हैं॥4
जानि सभय सुर भूमि सुनि बचन समेत सनेह।
गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह॥
देवताओं और पृथ्वी को भयभीत जानकर और उनके स्नेहयुक्त वचन सुनकर शोक और संदेह को हरने वाली गंभीर आकाशवाणी हुई॥
कल्याणम अस्तु ॥
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